الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
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[تعلق العبد بألف اللّٰه:أو مقام الأمناء الورثة الصديقين]

و ذلك أن العبد تعلق بالألف تعلق من اضطروا الالتجاء فأظهرته اللام الأولى طهور أورثه الفوز من العدم و النجاة فلما صح ظهوره و انتشر في الوجود نوره و صح تعلقه بالمسمى و بطل تخلقه بالأسماء أفنته اللام الثانية بشهود الألف التي بعدها فناء لم تبق منه باقية و ذلك عسى ينكشف له المعمى ثم جاءت الواو بعد الهاء لتمكن المراد و بقيت الهاء لوجوده آخرا عند محو العباد من أجل العناد فذلك أوان الأجل المسمى و هذا هو المقام الذي تضمحل فيه أحوال السائرين و تنعدم فيه مقامات السالكين حتى يفنى من لم يكن و يبقى من لم يزل لا غير يثبت لظهوره و لا ظلام يبقى لنوره فإن لم تكن تره اعرف حقيقة إن لم تكن تكن أنت إذ كانت التاء من الحروف الزوائد في الأفعال المضارعة للذوات و هي العبودية يقول بعض السادة و قد سمع عاطسا يقول ﴿اَلْحَمْدُ لِلّٰهِ﴾ [الفاتحة:2] فقال له ذلك السيد أتمها كما قال اللّٰه ﴿رَبِّ الْعٰالَمِينَ﴾ [الفاتحة:2] فقال العاطس يا سيدنا و من العالم حتى يذكر مع اللّٰه فقال له الآن قله يا أخي فإن المحدث إذا قرن بالقديم لم يبق له أثر و هذا هو مقام الوصلة و حال و له أهل الفناء عن أنفسهم و أما لو فنى عن فنائه لما قال الحمد لله لأن في قوله الحمد أثبت العبد الذي هو المعبر عنه بالرداء عند بعضهم و بالثوب عند آخرين و لو قال رب العالمين لكان أرفع من المقام الذي كان فيه فذلك مقام الوارثين و لا مقام أعلى منه لأنه شهود لا يتحرك معه لسان و لا يضطرب معه جنان أهل هذا المقام في أحوالهم فاغرة أفواههم استولت عليهم أنوار الذات و بدت عليهم رسوم الصفات هم عرائس اللّٰه المخبأون عنده المحجوبون لديه الذين لا يعرفهم سواه كما لا يعرفون توجهم بتاج البهاء و إكليل السناء و أقعدهم على منابر الفناء عن القرب في بساط الأنس و مناجاة الديمومية بلسان القيومية أورثهم ذلك قوله ﴿عَلىٰ صَلاٰتِهِمْ دٰائِمُونَ﴾ [ المعارج:23] و



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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