الفتوحات المكية

رقم السفر من 37 : [1] [2] [3] [4] [5] [6] [7] [8] [9] [10] [11] [12] [13] [14] [15] [16] [17]
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(وفق مخطوطة قونية)

[الذين صحت لهم الخلافة على نفوسهم]

و إن كان من أهل العلم بالله الأكابر الذين حكموا أنفسهم و صحت لهم الخلافة على نفوسهم فهم لا يرون متكلما و لا آمرا و لا داعيا في الوجود إلا اللّٰه على ألسنة العباد كما قال صلى اللّٰه عليه و سلم إن اللّٰه قال على لسان عبده سمع اللّٰه لمن حمده فهم في جميع نطق العالم كله حالا و مقالا بهذه الصفة فإن صحة مقام الشهود تحكم عليهم بذلك فإنهم لا ينكرون ما يعرفون و كما يقول المحجوب فلان تكلم يقول صاحب هذا المقام الحق تكلم على لسان هذا العبد بكذا و كذا أي شيء كان

[الكامل له التخيير في المشيئة أبدا]

ثم إن المتكلم لا يخلو إما أن يكون في هذا المقام أيضا فيرى أنه ينطق بالحق لا بنفسه أو لا يكون في هذا المقام فللمدعو أن ينظر في حال الداعي فإن دعاه بربه أجاب دعوته و قال إني صائم و لم يأكل و دعا لأهل البيت و صلى عندهم و إن شاء أكل إن عرف أن أكله مما يسر به الداعي فهو مخير لكماله و تحققه بالصفة فإن الكامل له التخيير في المشيئة أبدا فإن شاء و إن شاء ما لم يعزم فإن عزيمته مثل قوله ﴿مٰا يُبَدَّلُ الْقَوْلُ لَدَيَّ﴾ [ق:29] و مثل قوله و لا بد له من لقائي و أمثال ذلك و إن دعاه هذا الداعي بنفسه فإنه لا يدعو إلا مثله فإنه ما يدعو إلا من يصح منه الأكل و الشرب و لو لا ما هذا شهوده ما دعاه فليس لهذا السامع أن يأكل و ليتم صومه و لا بد فإن حق اللّٰه أحق بالقضاء و قد تعين عليه حق اللّٰه بما أدخل نفسه من هذا التلبس بالصوم

[حق النفس و حق الغير]

فإن قالت له نفسه الآكلة ما دعاك إنما كانت الدعوة لي لا لك فإجابتي لدعوته هو عين أكلي فإنه يقول لها إنما كان لك ذلك لو لم تدخل نفسك ابتداء مع الحق في هذه العبادة من غير إن يلزمك بها فلما تلبست بها تعين عليك إتمامها فإن ذلك من حقك الذي أوجبته على نفسك و حقك عليك أولى من حق غيرك عليك و قد عرفك الحق بذلك على لسان نبيك



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  الفتوحات المكية للشيخ الأكبر محي الدين ابن العربي

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